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Showing posts from 2023

महिला या दलित प्रधान मंत्री की जरुरत आज भारतीय राजनीति में

दलित प्रधानमत्री की मांग समय समय पर भारतीय राजनीति में उठती रही है और सही भी है भारतीय समाज को एक सूत्र में बढ़ने के लिए जिससे भारतीय राजतिनि में भी बराबर प्रतिनिधित्व बना रहे| बाबा साहेब जी को भारतरत्न कब मिला यह सब जानते है| और आज बीजेपी भी वही कर रही है| बहुजनो के कई ऐसे समाजसेवी है जिनको उनका हक़ नहीं मिला है ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, पेरियार और न जाने कितने लोग है| वैसे बीजेपी हर समय दूसरों की फसल कटाने में माहिर है| आप लोग देख सकते  है की कैसे बीजेपी बाबा साहेब जी का नाम ले कर फायदा उठा रही है| बल्कि बीजेपी को सही में अगर बहुजनो की चिंता होती तो बहुजनों के महानायकों की विचार धरा को आगे बढ़ाते| कई लोग है भारतरत्न के हक़दार, उन्हें उनका हक़ दिलवाती| कांग्रेस की तरह भी बीजेपी भी बहुजनो का सिर्फ राजनैतिक उपयोग करती है और वोट बैंक तक सिमित रखती है|  आज जब दलितों पर और महिलाओं पर आये दिन अत्याचार बढ़ रहे है और सरकार इनको रोकने में नाकाम रही है, चाहे राज्य सरकारे हो या राष्ट्र किसी को भी दलितों और महिलाओं के मामले भी संवेदशील नहीं देखा गया है|  महिला सुरक्षा हो या दलित उत...

फिल्मो की बदलती कहानिया

फ़िल्में एक ओर समाज का दर्पण हैं तो दूसरी ओर मार्गदर्शक भी हैं। इन फिल्मों का समाज के लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह की फिल्में आ रही हैं वे या तो धार्मिक उन्माद से भरी होती हैं या दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए वास्तविक तथ्यों से छेड़छाड़ करती हैं या जातिगत भेदभाव को निशाना बनाती हैं। कश्मीर फाइल्स, केरल स्टोरीज़, ७२ हूरें जैसी फ़िल्में एक धर्म और एक राज्य के लिए नैरेटिव बनाने में सहायता करती है, वही आदिपुरुष और अब OMG२ जैसे फिल्मो को सेंसर बोर्ड पास कर देता है और जनता किसी धर्म की दुहाई दे कर इन फिल्मो का बैकौट करती है और उस धर्म के मानाने वाले सभी लोगों को प्रेरित करती है, उनको दबाव दिया जाता है की वो भी बैकौट में शामिल हो| पद्मावत, लाल सिंह चड्ढा और पठान की तो बात छोड़िये मुझे आज तक मुझे पता ही नहीं चला कि धर्म भावना कैसी हो गयी, कई रंग से, कही कमेंट से कैसे इतनी छोटी सोच हो जाती है पढ़े लिखे लोगों की| RRR जैसे सफल फिल्मे बड़ी सफलता से धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ देती है|  खैर मैंने यह पोस्ट किसी और तरफ ध्यान खींचने के लिए लिख रहा हूँ| आज कल खास करके OTT ...

माता रमाबाई - एक प्रेरणा

रमाबाई का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता भीकू धोत्रे और माता रुक्मिणी थे। 3 बहनें और एक भाई थे। रमा की मां को दिल का दौरा पड़ा और कुछ दिनों बाद उनके पिता भीकू की भी मृत्यु हो गई। उनके चाचा और मामा ने इन सभी बच्चों की देखभाल की। सूबेदार रामजी अंबेडकर अपने बेटे भीमराव अंबेडकर के लिए दुल्हन ढूंढ रहे थे।उन्होंने रमाबाई को देखा और भीमराव के लिए पसंद कर लिए । विवाह की तिथि सुनिश्चित की गई और अप्रैल 1906 में रमाबाई का विवाह भीमराव अम्बेडकर के साथ तय हुआ। विवाह के समय रमा केवल 9 वर्ष की थी और भीमराव 14 वर्ष के थे। अब रमा, रमाबाई भीमराव आंबेडकर बन चुकी थी|  माता रमाबाई हमेशा अपने और बच्चों की बीमारी, गरीबी के कारण खाने-पीने में कठिनाई, दवाई लाने में कठिनाई के लिए चिंतित रहती थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने इस बात का पूरा ध्यान रखा कि बाबासाहेब के काम में कोई बाधा न आए। उन्हें बाबासाहेब पर पूरा भरोसा था। वह जानता था कि एक गरीब और नीची जाति में जन्म लेना और उस तरह जीना कितना कष्टदायक होता है। इसलिए उन्होंने कभी बाबासाहेब की पढ़ाई नहीं रोकी और न ही उनके आंदोलन को रोकने की कोशिश की. ...

परिवारवाद एक राजनैतिक आरक्षण और उसका बहुजन राजनीती पर प्रभाव

लोकतांत्रिक व्यवस्था राजतंत्र से इस तरह भिन्न होती है कि जहाँ राजतंत्र में एक ही परिवार/वंश के लोगों का राजगद्दी पर बैठते है और पीढ़ी दर पीढ़ी राज करते है, वहीं लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है। दुर्भाग्य की भारत में लोकतंत्र के बावजूद भी परिवारवाद/वंशवाद हावी है, अप्रत्यक्ष रूप से ही सही। माना की राजा नहीं चुन पते पर सांसद, विधायक और पार्षद में तो परिवारवाद देखा जा सकता है, जहां कुछ परिवारों का एकाधिपत्य चलता है। भारत में इस परिवारवादी या वंशवादी राजनीति का पुराण इतिहास रहा है। भारत की राजनीति में परिवारवाद से कोई भी राजनीतिक पार्टी अछूती नहीं रही है। राजनीतिक वंशवाद भारत की राजनीति को जकड़े हुए है। कर्णाटक विधानसभा चुनाव के बाद मैं ऐसे ही पिछले कुछ दिनों से बड़े राज्यों पर नज़र दौड़ा रहा था की बहुजन राजनीती किधर जा रही है| बिहार की बात करे तो चिराग पासवान जिनका बीजेपी के साथ पुराना नाता रहा है| वैसे आज कल तेजस्वी यादव लालू प्रसाद यादव जी के बेटे नितीश कुमार यादव जी के साथ है पर उन्हें कांग्रेस के साथ जाने में कोई परहेज दिखता नही है| राजस्तान के राजेन्द्र सिंह गुढ़ा मसल पा...

कर्णाटक विधान सभा चुनाव और मेरी निराशा

कर्नाटक विधान सभा चुनाव के विश्लेष तो आप ने काफी देखे होंगे और कई लोगों ने ख़ुशी भी जाहिर की होगी| पर मुझे इस चुनाव में भी निराशा हुयी| मैं कभी भी कांग्रेस से बीजेपी और बीजेपी से कांग्रेस सत्ता परिवर्तन नहीं चाहता था| मैंने एग्जिट पोल्स में जब जे.डी.यू को ३५ के आसपास सीटें दिखाई जा रही थी तब मैं खुश था| क्योकि जीत ना सही तीसरा फ्रंट किंग मेकर की जगह तो दिखाई दे रहा था| और तब मैं ट्वीट भी किया था|  कांग्रेस से बीजेपी और बीजेपी से कांग्रेस सत्ता परिवर्तन में बहुजनों की बात करने वाला कोई नहीं है और ना ही हम व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद कर सकते है| हमारे महापुरुषों ने जो व्यवस्था परिवर्तन और प्रतिनिधित्व की उम्मीद की थी क्या वो हो पायेगी? मेरा ये पक्का विश्वास है की बहुजनों की तीसरी राजनैतिक शक्ति होनी चाहिए  जो काम से काम किंग मेकर की भूमिका में हर समय रहे| इन दोनों पार्टियों के ऊपर एक प्रेशर जरूर होना चाहिए ताकि ये पार्टिया न तो हमारे हक़ का पैसा इधर उधर कर सके और न ही हमारा कोई सांविधानिक हक़ मरी हो| बहुजनों को समझाना होगा की चाहे राष्ट्रपति मुरुम जी हो या कांग्रेस प्रेजिडेंट खड़गे ...

डी. के. खापर्डे एक संगठात्मक सोच

कई महाराष्ट्रियन लोगों ने कांशीराम जी के सामाजिक आंदोलन और राजनैतिक आंदोलन में साथ दिया और डी के खापर्डे जी उनमे से थे जो अग्रणीय थे, और यह  में  कहने  में  भी अतिश्योक्ति  व गलत  नहीं की कांशीराम जी डी के खापर्डे जी के कारण ही कांशीराम बनने की राह पर चले| डी के खापर्डे जी बामसेफ के गठन से लेकर अपने परिनिर्वाण तक खापर्डे जी बामसेफ को फुले-अंबेडकरी विचारधारा का संगठन बनाने मे मेहनत और ईमानदारी के साथ लगे रहे।     डी. के. खापर्डे  जी  का जन्म 13 मई 1939 को नागपुर (महाराष्ट्र) में हुआ था। उनकी शिक्षा नागपुर में ही हुई थी।पढाई के बाद उन्होंने डिफेन्स में नौकरी ज्वाइन कर ली थी। नौकरी के वक़्त जब वे पुणे में थे, तभी कांशीराम जी और दीनाभाना वालमीकि जी उनके सम्पर्क में आये। महाराष्ट्र से होने के नाते खापर्डे जी को बाबा साहेब के बारे में व उनके संघर्ष के बारे में बखूबी पता था और उनसे वे प्रेरित थे| उन्होंने ने ही कांशीराम जी और दीनाभना जी को बाबा साहेब जी और उनके कार्यो, संघर्ष  व उनसे द्वारा चलाये आन्दोलनों  के बारे में बताया था| उ...

आज बहुजनों के एक मात्रा पार्टी बहुजन समाज पार्टी

 बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ही एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है जो आज भी कांग्रेस और भाजपा के सामने अपने दम पर खड़ी है। बहुजनों को एक मजबूत पार्टी के महत्व को समझना होगा और बहुजन समाज पार्टी के पीछे खड़ा होना होगा। यही एक पार्टी है जो की बहुजनो को सही प्रतिनिधित्व दे सकती है|  पिछले कुछ दिनों से कहा जा रहा है की बसपा और उसकी नेता मायावती जी हाल के कुछ वर्षों में राजनीतिक प्रदर्शन में चुनौतियों का सामना कर रही हैं।एक कारण ये बताया जा रहा है की बहुजन और पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) मतदाताओं के अपने मूल आधार के बाहर नए समर्थन को आकर्षित करने में पार्टी की असमर्थ रही है| दूसरा कारण ये बताते है की बसपा ने अपने मूल समर्थकों का समर्थन भी खो दिया है। इसके अलावा, मायावती जी का 2019 में समाजवादी पार्टी से नाता टूट जाना, जिसे उनकी एक "बड़ी गलती" के रूप में प्रचारित किया गया और कहा गया की बसपा उत्तर प्रदेश में अपने सबसे निचले स्तर पर हैं और अब पार्टी का कोई अस्तित्व नहीं रहा। मेरे हिसाब से राजनीती में उतार और चढाव आते रहते है उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती जी आज भी एक प्रमुख राजनीतिक हस्ती रह...

जाती से जातिनिरपेक्ष कब?

 इन दिनों चर्चा मे आता रहता है जातिवाद। पहले जातिवाद को समझते है| जातिवाद क्या होता है? जाति को महत्व या स्वीकृति देना और उसके आधार पर भेदभाव करना, किसी जाति विशेष को दूसरी जातियों से श्रेष्ठ बताना या मानना| पर क्या जाति को महत्व देना भी जातिवाद है या किसी एक विशिस्ट जाती की उथ्थान की बात करना भी जातिवाद है? मेरी नज़र में नहीं, जातिवाद शब्द को भेदभाव से अलग कर के नहीं देख सकते और देखना भी ठीक नहीं होगा| हम जातिवाद और जातिवादी दोनों शब्दों को एक नकारात्मक रूप से ही देखते आये है| आज कल इतिहास की तरह शब्दों का मतलब भी अपने हिसाब से बदलने का रिवाज़ चल पड़ा है| पर हमे स्पस्ट रहना होगा और ध्यान में भी रखना होगा की कौन जातिवादी है और कौन नहीं| विशिष्ट जाती के उत्थान की बातें करना या कई जातियों की हक़ की बातें करना कतई जातिवाद नहीं है| जो वंचित और मानी हुयी निचली जातियों के हक़ और उत्थान की बात करते है वो कतई जातिवादी नहीं है|  एक और शब्द है धर्मनिरक्ष जिसका अर्थ होता है किसी खास धर्म का समर्थन न करना और सभी धर्मों को बराबर मानना| मेरे हिसाब से इसी तरह जातिनिरपेक्ष शब्द होना चाहिए| हमे सभी...

आंबेडकर और अम्बेडकरवाद

भारत के लोगों को यह समझना होगा कि अंबेडकरवाद सिर्फ एक नाम नहीं है। अम्बेडकरवाद एक धारा है। आज भी मुख्यधारा के पत्रकार और बुद्धिजीवी अम्बेडकरवाद को एक नाम अम्बेडकर मानते हैं और अम्बेडकर को मानने वालों को एक नेता (विशिष्ट दलित नेता) का अनुयायी माना जाता है।    मुख्य रूप से राजनीति में हमने 3 भागों पर विचार किया है, एक दक्षिणपंथी (अनुयायी को भाजपा माना जाता है), वामपंथी (अनुयायी को भाकपा, सीपीएम माना जाता है) और कांग्रेस मध्यमार्गी। लेकिन मेरे हिसाब से एक और तबका है जिसे अम्बेडकरवादी भी कहा जाता है जो मध्यमार्गी से ऊपर है। मैं मिडसेंटरी से ऊपर क्यों कह रहा हूं क्योंकि यह ट्रेंडी है और मिडसेंटरी के सभी मानदंडों को पूरा करता है। इसके अलावा अम्बेडकरवाद ने बहुत स्पष्ट दिशा-निर्देश लिखे हैं। अम्बेडकर द्वारा लिखित संविधान को आसानी से डिकोड किया जा सकता है। लोगों को समझाना होगा फरक आंबेडकर का अम्बेडकरवाद से| बीजेपी, कांग्रेस, आप और मेरे ख्याल से स.पा और आर. एल. दी जैसी पार्टिया भी आंबेडकर एक नाम को अपना सकती है पर अम्बेडकरवाद को नहीं| आंबेडकरवाद से बानी पार्टियो में राष्ट्रीय लेवल पर बी...

बी.एस.पी और शिरोमणि अकाली दाल गठबंधन मेरी नज़र से

बहुजन समाज पार्टी ( बी.एस.पी) और शिरोमणि अकाली दाल (एस.ए.डी) गठबंधन आज की ही न्यूज़ है| पहली बार दोनों साथ नहीं आये है बल्कि कांशीरामजी के समय भी दोनों पार्टिया साथ आयी थी| १९१५ में बी.एस.पी ने एस.ए.डी को सपोर्ट किया था, १९९६ के लोकसभा चुनाव भी साथ में लड़े थे जिसमे कांशीराम जी होशियारपुर से जीते थे| इसके कुछ ही महीनो बाद एस.ए.डी ने बी.एस.पी से नाता तोड़ बीजेपी से नाता जोड़ लिया| १९९७ में एस.ए.डी ने बीजेपी के साथ मिल कर सरकार भी बनायीं| करीब २५ साल बाद फिर दोनों पार्टिया साथ में आयी| जून-२०२२ में दोनों ने मिल कर विधानसभा का चुनाव लड़ा| आज मायावती जी घोषणा करती हैं कि यह गठबंधन २०२४  लोकसभा भी साथ में चुनाव लड़ेगा| देखने वाली बात है की इस बार मायावती जी खुद सुखबीर सिंह बदल जी के घर गयी थीl जून-२०२३ में सतीश चंद्र मिश्रा जी दिखाई दिए थे| क्या मायावती जी ने इस बार खुद २०२४ की कमान संभाली है?  अगर इतिहास के कुछ पन्ने पलटाये तो इस गठबंध के पास बहुत कुछ कर दिखने का बशर्ते यह गठबंधन सिर्फ चिनावी घोषणा बन कर न रह जाये| पंजाब में दलित करीब ३१% और पिछड़े भी करीब ३१% माने जाते है जोकि काफी...

बहुजन राजनीती में सेंघमारी का दौर

क्या बहुजनों की राजनीतिक कभी ऐसे रूप में उभर पाएगी कि उनके बिना न कोई कदम, न कोई फैसला और न कोई कानून भारत देश में कोई सोच भी पाए| मुझे लगता है की मुस्लिमों और बहुजनों की हालत एक जैसे ही है| आज के तारीख में किसी भी राज्य में हम नहीं कह सकते की इन दोनों समुदायों की जवाब देहि, साझीदारी है| मुस्लिमों की बात करें तो आज़ादी के बाद से कोई भी संगठन बजबूती से नहीं रहा इनके पास, वही बहुजनों की बात रखने के लिए बाबा साहेब जैसे नेता थे और बाद में भी कई नेता आये| आज कल की बातें करें तो AIMIM दिखती है मुस्लिमों की बात रखती हुयी और बहुजनों की क्या बात हर राज्य में दो या तीन पार्टियां तो मिल ही जाएगी जो दम भारती है बहुजनों की बात रखने की| गिनी चुनी ही पार्टिया है जो राष्ट्रीय स्तर पर बात रख पाती है|  क्योकि किसी भी बहुजन पार्टी का अब वोट पर पकड़ नहीं रही तो सेंघमारी तो करनी पड़ेगी| चाहे बसप हो या कोई और बहुजन पार्टी इनके पास कोई भी अपना मुद्दा नहीं बचा है या कोई अपना मुद्दा उठाना नहीं चाहते| अब सेंघमारी की बात करे तो बसप का यह हाल हो गया की मायावती जी को अपने जन्मदिन पर EVM पर बयांन देना पड़ा और EVM छ...

बाबू मंगू राम - पंजाब के महान समाज सुधारक

 मंगू राम जी का जन्म 14 जनवरी, १८८६ में जिला होशियारपुर के एक गांव में हुआ था,  इनके पिता, हरमन दास एक पारंपरिक चमार जाति से थे और चमड़े के व्यावसाय में थे | बाद में उन्होंने ये पेशा छोड़ दिया था। मंगू राम की मां अत्रि की मृत्यु मंगू राम के तीन साल की उम्र में हो गई थी, इसलिए पिता सहायता के लिए अपने बेटों - मंगू और उनके दो भाई पर बहुत अधिक निर्भर रहना पड़ता था। मंगू राम के पिता को उच्च जातियों के साक्षर सदस्यों पर भरोसा करने के लिए मजबूर होना पड़ता था ताकि वे बिक्री के आदेश और अन्य निर्देशों को पढ़ सकें जो की अंग्रेजो ने बनाये थे। एक घंटे के उनके पढ़ने के लिए उन्हें उन लोगों का एक दिन का कच्चा श्रम करना होगा। इसी वजह से मंगू राम के पिता अपने बेटे को प्रारंभिक शिक्षा दिलाने के लिए उत्सुक थे और मांगू राम भी पढ़ने में रूचि लेते थे| जब मंगू राम सात वर्ष के थे, तो उन्हें एक गाँव के साधु (संत) ने पढ़ाया और जल्द ही उन्होंने स्कूल पढ़ाई सुरु कर दी| निम्न जाती का होने के कारन उनके लिए पड़ना इतना आसान नहीं था| स्कूल में मंगू राम ही अनुसूचित जाति के छात्र थे| वह कक्षा में सबसे पीछे या य...

तिलका मांझी - वीरगति किस के लिए

तिलका मांझी एक पहाड़िया (पहाड़ी लोग) समुदाय में से आप कह सकते है की पहले आदिवासी नेता थे। हमारे देश के इतिहासकारो ने आदिवासियों व बहुजनों का इतिहास कभी ठीक ढंग से लिखा नहीं| शायद इसलिए की लिखना सिर्फ एक ऊंची जाती तक ही सिमित था और आदिवासियों और बहुजनों को उस समय लिखना आता नहीं था | जो कुछ भी इतिहास मिलता है उससे पता चलता है की 1784 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था तिलका मांझी ने। अपने लोगों को खाने व संसाधनों की कमी को देखते हुए उन्होंने आंदोलन छेद दिया था| कुछ समय बाद उन्होंने एक आदिवासियों को एक सशस्त्र समूह बनाया और उन्हें संगठित किया। 1771 से 1784 तक उन्होंने कभी आत्मसमर्पण नहीं किया। (https://thewire.in/history/santal-hul-revolution) मांझी ने अपने लोगों के लिए लड़ाई लड़ी, उनके शब्दों ने कई आदिवासी आंदोलनों को जन्म दिया। 1774 का हल्बा विद्रोह, 1818 का भील विद्रोह और 1831 का कोल विद्रोह। 1855-56 की संथाल हुल (क्रांति) संथाल आदिवासियों और बहुजनो के किसानों द्वारा शोषक उच्च जाति के जमींदारों (जमींदारों), महाजनों के खिलाफ लड़ी गई एक ऐसी ऐतिहासिक क्रांति थी। (साहूकार),...

८ जनवरी अंतरास्ट्रीय बुद्धिस्ट फ्लैग दिन

यह प्रार्थना के स्थान पर झंडे लगाने की बात नहीं है, प्रार्थना के प्रतीक ये झंडे आपको लगभग सभी प्रार्थना स्थलों में प्राणियों और पूरे विश्व के लाभ के लिए मिलते हैं। आपने बौद्ध प्रार्थना स्थलों पर रंगीन कपड़े के सुंदर झंडे देखे होंगे, आध्यात्मिक अर्थ मैं अभी व्यक्त नहीं करूंगा। रंगीन झंडों की परंपरा प्राचीन काल में भी देखी जा सकती है। तिब्बत, चीन, फारस, भारत, श्रीलंका, भूटान और कई अन्य देशों में एक लंबी परंपरा रही है। बौद्ध ध्वज आधुनिक काल की रचना है और शायद ये रंगीन झंडे ही इनकी प्रेरणा होंगे| माना जाता है को इसे १८८० में सीलोन (वर्तमान में श्रीलंका) में बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान को चिह्नित करने के लिए श्री जे.आर. डी सिल्वा और कर्नल हेनरी स्टील ओल्कोट (अमेरिकी पत्रकार) द्वारा संयुक्त रूप से डिजाइन किया गया था।  बौद्ध ध्वज पहली बार 1885 में श्रीलंका में फहराया गया था। ध्वज बाद में बौद्धों की एकता का प्रतीक बन गया। तत्पश्चात, इसका उपयोग दुनिया भर में किया गया है और लगभग 60 देशों में सभी बौद्ध उत्सवों के दौरान इसका उपयोग किया गया है। हम लोगों ने बुद्धिस्ट धर्म को बाबा साहेब जी के म...