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जाती से जातिनिरपेक्ष कब?

 इन दिनों चर्चा मे आता रहता है जातिवाद। पहले जातिवाद को समझते है| जातिवाद क्या होता है? जाति को महत्व या स्वीकृति देना और उसके आधार पर भेदभाव करना, किसी जाति विशेष को दूसरी जातियों से श्रेष्ठ बताना या मानना| पर क्या जाति को महत्व देना भी जातिवाद है या किसी एक विशिस्ट जाती की उथ्थान की बात करना भी जातिवाद है? मेरी नज़र में नहीं, जातिवाद शब्द को भेदभाव से अलग कर के नहीं देख सकते और देखना भी ठीक नहीं होगा| हम जातिवाद और जातिवादी दोनों शब्दों को एक नकारात्मक रूप से ही देखते आये है| आज कल इतिहास की तरह शब्दों का मतलब भी अपने हिसाब से बदलने का रिवाज़ चल पड़ा है| पर हमे स्पस्ट रहना होगा और ध्यान में भी रखना होगा की कौन जातिवादी है और कौन नहीं| विशिष्ट जाती के उत्थान की बातें करना या कई जातियों की हक़ की बातें करना कतई जातिवाद नहीं है| जो वंचित और मानी हुयी निचली जातियों के हक़ और उत्थान की बात करते है वो कतई जातिवादी नहीं है| 

एक और शब्द है धर्मनिरक्ष जिसका अर्थ होता है किसी खास धर्म का समर्थन न करना और सभी धर्मों को बराबर मानना| मेरे हिसाब से इसी तरह जातिनिरपेक्ष शब्द होना चाहिए| हमे सभी धर्मों के साथ सभी जातियों को भी बराबर मानना होगा| जातिनिर्पेक्षता हर जाती को बराबर का दर्ज़ा देता है| 

माना की जातीय कर्म के आधार पर बनी होगी और आज जातिया जनम के आधार पर ही निर्धारित होती है| आज से नहीं कई सालों से जातीया जनम के आधार पर ही निर्धारित होती रही है| और वर्षो से इन जातियों ने अपनी एक सभ्यता, सस्कृति और जीने का तरीका बनाया हुआ है| वैसे किसी जाती की सही उत्त्पत्ति और इतिहास बताना मुश्किल है| एक सोचे समझे चक्रविव्यु के तहत हर जाती को हिन्दू धर्म से जोड़ा गया और जातियों के उनके सभ्याता और संस्कृति को मिटा कर एक नयी सभ्यता और सस्कृति दी गयी| अगर कुन्बी जाती की बात करू जिससे छत्रपति शाहूजी महाराज आते है, ये लोग अपने आपको क्षत्रिय बताते है पर आज यह जाती कृषि करने वालों की मानी  जाती है और मशहूर है की मुगलों के आक्रमण के डर से इन्होने क्षत्रियता छोड़ कृषि पकड़ ली पर हिन्दू धर्म नहीं छोड़ा| वैसे ही माली जाती को कभी भगवान शंकर तो कभी परशुराम के डर क्षत्रिय छोड़ माली बन जाना| माली जाती से ज्योतिराव फुले जी आते है जिन्होंने जाती प्रथा का विरोध किया भेदभाव के कारण  पर क्या उन्होंने जाती छोड़ने को कभी बोला है? महार जाती को लेते है जिसमे बाबा साहेब जी का जन्म हुवा वो भी अपने आपको क्षत्रिय मानते है| बाबा साहेब जी ने भी जाती आधारित ही आरक्षण का प्रावधान दिया है| 

अनुसूचित जन जातियों के इतिहास की बातें करे तो वो लोग बताया जाता है की सुरु से ही राज्यों के बहार या शहरों के बहार रहते थे| आदिवासियों को ज्यादातर जन जातियों में गीना जाता है| इनके अपने ही रीती और रिवाज चलते रहे है, जब शहर से बाहर रहने वाले लोग शहर के अंदर नहीं गए और अंदर वाले लोग बहार नहीं गए फिर दोनों के रीती रिवाज़ो का एक होने में थोड़ा संदेह तो आता है| 

आज के हालत देखे तो जाती या जनजाति को ले कर चलना आवश्क्य ही नहीं आज की जरुरत भी है| जिससे इन लोगों को देश के हर हिस्से हिस्सेदारी मिले| हम लोग विलुप्त जानवरों की जातियों की तो चिंता करते है पर विलुप्त हो रहे अनुसूचित जाती और जनजातियों के विलुप्त होते संस्कृतियों और सभ्यताओं की चिंता नहीं कर रहे बल्कि उन्हें एक हिन्दू रूपी छतरी के निचे लाने की कोशिश कर रहे है| मेरे ख्याल से हमे जातिनिरपेक्षता भी चाहिए जहा हर जाती समानता के साथ बिना भेदभाव एक साथ रह सके| मुझे ग्रीक में प्रचलित अभिजात वर्ग की याद आती है जो की अपने आप को नैतिक रूप से सही और बौद्धिक रूप से क्षेष्ठ मानते है और अपने हिसाब से आम लोगों को चलने के लिए कहते है| 

एक दूसरा पक्ष जाती विहीन समाज की कल्पना करता है पर यह भी अपनी जाती छोड़ने की बात करते है, उसके बिना जाती विहीन समाज कैसे बन सकता है?

क्या जो जैसा है वैसे ही उसे स्वीकार करना इतना मुश्किल है, जो जैसा है उसे वैसे ही  साथ में लेना क्या इतना मुश्किल है| बाबा साहेब शायद समझ गए थे की जातिनिरपेक्ष होना बहुत मुश्किल है पर धर्मनिरपेक्ष होना थोड़ा आसान है| 

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