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डी. के. खापर्डे एक संगठात्मक सोच


कई महाराष्ट्रियन लोगों ने कांशीराम जी के सामाजिक आंदोलन और राजनैतिक आंदोलन में साथ दिया और डी के खापर्डे जी उनमे से थे जो अग्रणीय थे, और यह में कहने में भी अतिश्योक्ति व गलत नहीं की कांशीराम जी डी के खापर्डे जी के कारण ही कांशीराम बनने की राह पर चले| डी के खापर्डे जी बामसेफ के गठन से लेकर अपने परिनिर्वाण तक खापर्डे जी बामसेफ को फुले-अंबेडकरी विचारधारा का संगठन बनाने मे मेहनत और ईमानदारी के साथ लगे रहे।   

डी. के. खापर्डे जी का जन्म 13 मई 1939 को नागपुर (महाराष्ट्र) में हुआ था। उनकी शिक्षा नागपुर में ही हुई थी।पढाई के बाद उन्होंने डिफेन्स में नौकरी ज्वाइन कर ली थी। नौकरी के वक़्त जब वे पुणे में थे, तभी कांशीराम जी और दीनाभाना वालमीकि जी उनके सम्पर्क में आये। महाराष्ट्र से होने के नाते खापर्डे जी को बाबा साहेब के बारे में व उनके संघर्ष के बारे में बखूबी पता था और उनसे वे प्रेरित थे| उन्होंने ने ही कांशीराम जी और दीनाभना जी को बाबा साहेब जी और उनके कार्यो, संघर्ष व उनसे द्वारा चलाये आन्दोलनों  के बारे में बताया था| उन्होंने कांशीराम जी को बाबा साहब जी की लिखी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक जाति भेद का उच्छेद (Annihilation of Caste) पढ़ने के लिए दी जिससे कांशीराम जी बहुत विचलित हुए और बाबा साहेब जी के रस्ते पर चल पड़े। इन तीनों महापुरुषों खापर्डे जी, कांशीराम जी और दीनाभाना जी ने समाज के अन्य जागरुक साथियो के साथ मिल कर विचार किया कि अनुसूचित जतियों, अनुसूचित जन जतियों, अन्य पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समाज के लोगों का राष्ट्रीय स्तर पर एक ‘थिंक टेंक’ होना चाहिए जिसमें इस समाज के नौकरी पेशा कर्मचारी और अधिकारी लोग हों और जो लम्बी प्लानिंग के साथ इस बहुजन समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए, ‘फुले-अम्बेडकरी विचारधारा’ के तहत सामाजिक चेतना का काम करे। इसी के तहत इन तीनों ने मिलकर सामाजिक जडे मजबूत करने के लिए बामसेफ की स्थापना 6 दिसम्बर 1973 को पूना मे किऔर 6 दिसम्बर 1978 को दिल्ली मे इसे मूर्त रूप दिया गया और तय किया कि “बामसेफ को समाज के ‘थिंक टेंक’ का काम करना चाहिए और समाज को गाइड करना चाहिए”।

इसके बाद 1984 मे कांशीराम जी ने राजनीति के क्षेत्र मे कदम रखा चाहा और वही से खापर्डे जी और कांशीराम जी मे मतभेद हो गया। जहा खापर्डे जी इस सोच के थे कि पहले सामाजिक आन्दोलन को इतना सशक्त बनाया जाये कि उससे व्यवस्था परिवर्तन को होने से रोका न जा सके और इसका समय अभी आया नहीं है पर कांशीराम जी इस सोच के थे की राजनीती से हर ताला खोला जा सकता है और राजनीती में जाने का समय आ गया। इसके बाद दोनों के रस्ते अलग हो गए जहां कांशीराम जी आजीवन राजनीति मे सक्रिय रहें वही खापर्डे जी सामाजिक आंदोलन को स्थापित करने और उसे मजबूत करने के प्रति आजीवन समर्पित रहे। दोनों एक दूसरे से एक अदृश्य जोड़ से जुड़े थे जो था दोनों का एक उद्देश्य - व्यवस्था परिवर्तन। मेरे पिताजी कहते थे की लगभग सभी बामसेफ कार्यकर्ता अगर वोट देते थे तो कांशीराम जी के पार्टी बहुजन समाज पार्टी को ही वोट देते थे| यही देन थी खापर्डे जी के सामाजिक जाग्रति की| उन्होंने एक ऐसा जागृत संगठन बनाया था जो की सामाजिक और राजनैतिक समझ रखता था|बामसेफ में जाना वाला ऐसा आपको शायद ही दिखेगा जो कांग्रेस के लालच में आया हो|बामसेफ के सिपाही खुलकर सामाजिक कुरीतियों के बारे बोलने लगे और समाज में हो रहे अत्याचार का विरोध करने लगे| 

खापर्डे जी ने 1987 मे व्यवस्था परिवर्तन के उद्देश्य को लेकर स्वतन्त्र रूप से बामसेफ को चलाने की योजना बनायीं और उन्होंने डिफेन्स की अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। उनके नेतृत्व में देश के कोने-कोने में कैडर केम्प आयोजित किये गए और संगठन के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता का एक बड़ा संगठन तैयार हुवा। मुझे आज भी याद है उस समय पूछने पर मेरे पिताजी कहते थे कि खापर्डे जी के बामसेफ ने ऐसा इंसान तैयार किया है जो फुले-आंबेडकर की विचार धारा के अनुरूप सोचता है, बहुजन समाज पार्टी के अलावा किसी और राजनैतिक पार्टी के बारे में सोचता नहीं है और सोचता भी है तो हाथ कपङे है| यह अपने आप मे सामाजिक या कहे व्यवस्था परिवरतन ही तो थी| “नि;संदेह, बामसेफ ने सामाजिक आन्दोलन की ज्योत खास कर नौकरी-पेशा एससी, एसटी, ओबीसी, और अल्पसंख्यक वर्ग के कर्मचारी-अधिकारीयों में जगाई और "पे बैक टू सोसायटी" का जज्बा दिया| आज इस मंच के कई मंच हो गए है पर लोग आज भी किसी ना किसी मंच से "पे बैक टू सोसायटी" का जज्बे के लिए जुड़े हुए है। इसके लिए खापर्डे जी का योगदान महान है।

व्यवस्था परिवर्तन के बारे मे खापर्डे जी ने बामसेफ के 13वे राष्ट्रीय अधिवेशन मे बोलते हुये बताया कि “व्यवस्था परिवर्तन का मतलब क्या है? व्यवस्था परिवर्तन मतलब देश की सत्ता संरचना मे बदलाव।सत्ता संरचना का स्वरूप न बदलने से व्यवस्था परिवर्तन नहीं हो रहा है। सामाजिक परिवर्तन, उसके बाद राजनीतिक परिवर्तन और अंत मे व्यवस्था परिवर्तन। जब तक सामाजिक परिवर्तन नहीं होगा तब तक राजनीतिक परिवर्तन नहीं होगा। क्योकि इस गैरबरबरी की वजह से राजनीतिक आचरण अलग-अलग और कभी-कभी तो परस्पर विरोधी होता है। आपसी सामाजिक संबंधो के पुनर्निर्धारण और पुनर्स्थापना से राजनीतिक आचरण एक जैसा होगा। इससे राजनीतिक परिवर्तन होगा और इसके उपयोग एवं प्रयोग से व्यवस्था परिवर्तन होगा। आज राजनीतिक सत्ता मे बड़े पैमाने पर ओबीसी के लोग आयें है लेकिन फिर भी व्यवस्था परिवर्तन नहीं हो रहा है क्योकि इस राजनीतिक सत्ता का प्रयोग व्यवस्था बदलने के लिए नहीं बल्कि उसे कायम रखने के लिए ही किया जा रहा है। खापर्डे जी का मानना था कि विचार में परिवर्तन हुए बिना आचरण में परिवर्तन संभव नहीं है और यदि विचार में परिवर्तन नहीं होता है तो हमारा आदमी भी यदि पोजीसन ऑफ़ पावर पर पहुचता है तो वह ब्राह्मणवादी एजेंडा को ही आगे बढ़ाने में लगा रहता है.

व्यवस्था परिवर्तन के लिए चार पूर्व शर्ते है। जब तक यह पूर्व शर्ते पूरी नहीं होती व्यवस्था परिवर्तन मुमकिन नहीं है। सबसे पहली पूर्व शर्त है जिन शोषित और शासित जातियो को व्यवस्था परिवर्तन की जरूरत है उनका एक समान उद्देश्य होना। दूसरी पूर्व शर्त है एक विचारधारा और यह विचारधारा गांधीवाद, लोहिया वाद, साम्यवाद या मार्क्स वाद नहीं हो सकती है। केवल फुले-अंबेडकरवाद ही हो सकती है। तीसरी पूर्व शर्त है इन जतियों मे लीडरशिप निर्माण करना। आज इस समाज मे बहुत से नेता है लेकिन वे व्यवस्था परिवर्तन के लिए कार्यरत नहीं है। और आखिरी शर्त है अनुसूचित जतियों जतियों और अन्य पिछड़े वर्ग का ध्रुवीकरण। सत्ता संरचना समाज संरचना का प्रतिबिंब मात्र है।

उनका यह भी कहना था कि अच्छे विचार, अच्छे गुण और अच्छा चरित्र यह तीन बांते जो लोग खुद मे निर्माण करेंगे वही लोग आंदोलन को चला संकेंगे। आदमी के काबिल होने के साथ उसका ईमानदार होना भी जरूरी है। 

खापर्डे जी ने संगठन मे अपने को आगे बढ़ाने कि बजाय योग्य और सक्षम कार्यकर्ताओ को आगे बढ़ाया और उनके नेतृत्व मे खुद एक कार्यकरता बन कर पूरे लगन, मेहनत और ईमानदारी के साथ कार्य किया। संगठन मे व्यक्तिवाद के स्थान पर संस्थागत समूहिक नेत्रत्व मे उनका विश्वास था|खापर्डे जी का परिनिर्वाण 29 फरवरी 2000 को पुना मे हुआ।

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