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फिल्मो की बदलती कहानिया


फ़िल्में एक ओर समाज का दर्पण हैं तो दूसरी ओर मार्गदर्शक भी हैं। इन फिल्मों का समाज के लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह की फिल्में आ रही हैं वे या तो धार्मिक उन्माद से भरी होती हैं या दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए वास्तविक तथ्यों से छेड़छाड़ करती हैं या जातिगत भेदभाव को निशाना बनाती हैं। कश्मीर फाइल्स, केरल स्टोरीज़, ७२ हूरें जैसी फ़िल्में एक धर्म और एक राज्य के लिए नैरेटिव बनाने में सहायता करती है, वही आदिपुरुष और अब OMG२ जैसे फिल्मो को सेंसर बोर्ड पास कर देता है और जनता किसी धर्म की दुहाई दे कर इन फिल्मो का बैकौट करती है और उस धर्म के मानाने वाले सभी लोगों को प्रेरित करती है, उनको दबाव दिया जाता है की वो भी बैकौट में शामिल हो| पद्मावत, लाल सिंह चड्ढा और पठान की तो बात छोड़िये मुझे आज तक मुझे पता ही नहीं चला कि धर्म भावना कैसी हो गयी, कई रंग से, कही कमेंट से कैसे इतनी छोटी सोच हो जाती है पढ़े लिखे लोगों की| RRR जैसे सफल फिल्मे बड़ी सफलता से धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ देती है| 

खैर मैंने यह पोस्ट किसी और तरफ ध्यान खींचने के लिए लिख रहा हूँ| आज कल खास करके OTT पर जातियों के भेदभाव पर फिल्मे खूब आ रही है| आनी चाहिए सच्चई दिखानी चाहिए| पर जिस तरह से दिखाई जा रही है उस पर मेरा ध्यान अनावस्यक ही चला गया|  दहाड़, कठहल, भीड़ जैसे फिल्मो में ऊंची जाती से नीची जाती का टकराओ दिखया है और नीची जाती को हीरो दिखाने की कोशिश की है| कई बार तो लगा की जाती का एंगल जबरदस्ती ही डाला गया| भीड़ जैसी संवेदना  भरी फिल्म में कोरोना के समय लोगों का पलायन दिखया गया पर उनमे भी बड़ी खूबी से जाती का एंगल भी दिखाया गया|  

अगर मैं पूरे चक्र को देखु तो ऐसी फिल्में OTT पर ही रिलीज़ हो रही है| OTT गांव में कितने लोग देखते होंगे, शहरी लोगों को ऐसी  फिल्मे दिखने से क्या असर पड़ेगा| मेरे हिसाब से ऊंची जाती के लोगों में नफरत और नीची जाती में घृणा पैदा होगी| धर्मो का फार्मूला अब जातियों पर लागु किया जा रहा है| असर शायद दिखने लगा है| कई जगह से दलितों पर अत्याचार की खबरे आ रही है. पानी पीना, घोड़ी पर न चढाने देना तो होता ही था और अब मूत्र पिलाने की, पैखाना खिलने की, नंग कर मरने की, गांव में खुले आम धमकी देने की खबरे ज्यादा हो गयी है|   

एक विशेष विचारधारा को बढ़ावा देने वाली फिल्मो की तो बात ही क्या करे "गाँधी गोडसे", हिदुत्व, पृथ्वीराज और जैसे "एक्सीडेंटल प्रीमिनिस्टर", "मैं दीनदयाल हु", "बाल नरेन्" की तो क्या बात करू, किन लोगों का मार्गदर्शन करना है| 

OTT पर रिलीज करना या फिर सिनेमाघरों में रिलीज करने से भी असर आता है की किन लोगों को टारगेट किया जाये| कुछ फ़िल्में जैसे "जय भीम", झुंड कई साउथ फ़िल्में हैं जो उच्च जाति और निम्न जाति के समावेश को दिखाती हैं। वे एक अच्छे समाज का प्रदर्शन करने में सक्षम हैं जहां हर कोई अपने विश्वास और धर्म का पालन कर सकता है| मेरी चिंता बस इतनी है कि ऐसी फिल्मों की वजह से लोग नफरत को जन्म न दें और भेदभाव समाज में और न बढे| 

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