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राजेंद्र गौतम कही दूसरे उदितराज तो नहीं ?

 भारत में राजनीति की बिसात धर्म की आड़ लेकर या धर्म की सीढ़ी बनाकर शुरू की जाती है। हर दल और लगभग हर नेता इससे अछूता नहीं है। और यह सूत्र सफल भी होता है। बहुत सी बातें धर्म की आड़ में भी छिपी हैं। जिस देश में लोग देश के संवैधानिक नाम से ज्यादा भारत का इस्तेमाल करते हैं, वहां ज्यादा राजनीतिक परिपक्वता की उम्मीद करना भी सही नहीं है। आदर्श रूप से हमें धर्म और राजनीति को अलग-अलग रखना चाहिए और बिना धर्म के प्रभाव में आकर राजनैतिक में उसे समर्थन करना चाहिए जो सही में देश और सर्व समाज का भला कर सके| बहुजन वंचित समाज भी इससे अछूता  नहीं है| उनके लिए आंबेडकर एक धर्म से कम नहीं है| ये समाज आंबेडकर जी के द्वारा बताये रास्तों की बातें करने वालों के पीछे अंध भक्त की तरह चल पड़ते है| उन्हें यह पता ही नहीं चलता की अंध भक्त की तरह चलते चलते वे कब राजनैतिक मोहरा बन गए और आंबेडकर जी के रास्तो को छोड़ बस एक नारा बन गए "जय भीम"| बहुजन व वंचित समाज के लोगों को आंबेडकर धर्म के रास्तों पर चलते चलते यह भी समझाना होगा की उनके आंबेडकर धर्म का कोई राजनैतिक फायदा नहीं ले ले जो की पिछले कई सालों से होता आ रहा है|  आज कल राजेंद्र गौतम जी के पूरी दुनिया में चर्चे हो रहे है| उन्होंने आंबेडकर जी द्वारा लिखी २२ प्रतिज्ञाये ली और हज़ारों लोगों को भी दिलवाई| राजरतन आंबेडकर जी की मौजूदगी में यह कार्यक्रम समापन हुआ| यह प्रतिज्ञाएं हर साल १९५६ के बाद हर धम्म दीक्षा में दी जाती है| आंबेडकर जी द्वारा धम्म दीक्षा की रीत है, त्रिशरण, पंचशित और २२ प्रतिज्ञाएं|  ये प्रतिज्ञाएं एक विचारधारा, एक क्रांति, एक रीत और एक सामाजिक समानता की तरफ रस्ते का प्रतीक है| अगर उदितराज जी की बात करू तो उन्होंने भी यह कदम उठाया था और फिर राजनिति के लिए विचारधारा के विपरीत पार्टी के साथ चले गए थे| समाज को कितना फायदा हुआ वो किसी से छिपा नहीं है| सबक ले कर क्या हमे राजेंद्र गौतम जी को थोड़ा समय नहीं देना चाहिए जिससे उनका राजनैतिक लगाव भी पता चल सके और हम फिर से सिर्फ एक नारा बन कर न रह जाये| 

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