1. आरक्षण नीति का इतिहास
आरक्षण नीति की शुरुआत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय से हुई थी। ब्रिटिश शासन के दौरान, समाज के कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए कई प्रयास किए गए थे। 1909 में मिंटो-मोर्ले सुधारों के तहत, मुस्लिम समुदाय को राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण प्रदान किया गया था। इसके बाद, 1932 का पूना पैक्ट गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर के बीच एक जबरदस्ती वाला समझौता था, जिसने दलित समुदाय के लिए आरक्षण की नींव रखी।
स्वतंत्रता के बाद, भारतीय संविधान में आरक्षण की अवधारणा को संवैधानिक मान्यता दी गई। भारतीय संविधान के मुख्य निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस नीति को समाज के हाशिये पर रहने वाले लोगों को प्रतिनिधित्व देने के लिए आवश्यक माना, जिससे उन्हें भी शिक्षा का अधिकार, अपने मन की नौकरी करने का अधिकार और राजनीती द्वारा देश को प्रगति में हिस्सेदारी का अधिकार हो। यह समझना अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है की सालों से इन जातियों को इन सब का अधिकार नहीं था| भेदभाव जाती के आधार पर हूआ है तो प्रतिनिधित्व भी जाती के आधार पर ही होना चाहिए|
2. संविधान में आरक्षण
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान करते हैं। अनुच्छेद 15(4) के तहत, राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान करने की शक्ति है, जबकि अनुच्छेद 16(4) के तहत, राज्य को सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण प्रदान करने की शक्ति है। इसके अलावा, अनुच्छेद 330 और 332 अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए संसद और राज्य विधानसभाओं में आरक्षण प्रदान करते हैं।
भारत में मुख्य रूप से तीन प्रकार के आरक्षण या प्रतिनिधित्व दिया गया है:
1 अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए का प्रतिनिधित्व : यह आरक्षण उन लोगों के लिए है जो ऐतिहासिक रूप से सामाजिक पिछड़े रहे और सामाजिक रचना में कही स्थान पा न सके| अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए शिक्षा, सरकारी नौकरियों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व आरक्षण के द्वारा प्रदान किया जाता है।
2 अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए प्रतिनिधित्व : मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद 1992 में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण लागू किया गया था। यह प्रतिनिधित्व उन जातियों के लिए है जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी हैं और समझिक संरचना में सबसे निचली पायदान पर थे।
3 आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए प्रतिनिधित्व : 2019 में सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10% आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। यह आरक्षण उन लोगों के लिए है जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं लेकिन एससी, एसटी या ओबीसी श्रेणी में नहीं आते हैं। मेरे हिसाब से कोई भी आर्थिक रूप से कमजोर है उन्हें स्कालरशिप या कई और तरीकों से मदद की जा सकती है| यहाँ प्रतिनिधित्व का सवाल नहीं है|
आरक्षण नीति का प्रभाव भारत के सामाजिक और आर्थिक ढांचे पर व्यापक रहा है। इस नीति के माध्यम से कई सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाया गया है। इसे सामाजिक न्याय और मानव अधिकारों के उदेश्यो को पूरा करने भी माना जा सकता है|
3. कथाकथित बौद्धिक लोगों के द्वारा उपवर्गीकरण की आवश्यकता क्यों है?
मानना है की समाज के SC/ST/OBC वर्गों में विषमताओं और असमानताओं की गहराई होती जा रही है। अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग और अन्य सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों में भी ऐसे समूह होते (बनाते जा रहे) हैं जो अपेक्षाकृत अधिक वंचित और पिछड़े हुए होते हैं। उप-श्रेणीकरण के माध्यम से इन सबसे अधिक वंचित समूहों को सुनिश्चित किया जा सकता है कि वे आरक्षण का लाभ प्राप्त कर सकें। उप-श्रेणीकरण का उद्देश्य है कि इन कमज़ोर समूहों को भी समान अवसर मिलें और वे सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक प्रगति में भागीदार बन सकें और यह सुनिश्चित करता है कि आरक्षण के लाभ वास्तव में उन लोगों तक पहुंचे जिनकी जरूरत सबसे अधिक है, और यह सामाजिक न्याय को और अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने का एक महत्वपूर्ण तरीका है।
4. उप-वर्गीकरण के प्रभाव
मेरी नज़र में ऊपर दिया बुद्धिजीवियों द्वारा दिया समाधान - उपवर्गीकरण एक सस्ता और कामचलाऊ समाधान है। आज किसी भी संस्थागत डेटा से सही डेटा की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती है और जाति स्तर की प्रगति को मापने के लिए कोई मानदंड नहीं है। सिर्फ यह कहने से काम पूरा नहीं होता की १% इस जाती से, २% उस जाती से और ७% इधर से और ११% उधर से नौकरी कर रहे है| उप-वर्गीकरण यह समस्या का सही समाधान है|
a, क्या हम जानते हैं कि उस जाति से कितने उम्मीदवार 1% प्रतिनिधित्व के लिए आगे आए और कितने मानदंड को पूरा कर रहे हैं? उदाहरण के लिए एलडीसी के पद के लिए 12 वीं कक्षा न्यूनतम मानदंड है, और प्रत्येक जाति से कितने लोगों ने आवेदन किया है और कितने मानदंड को पूरा कर रहे हैं। हमें यह जरूर जानना चाहिए कि एक जाती से कितने प्रतिशत लोग आवेदन कर रहे हैं, कितने लोग मानदंडों को पूरा कर रहे हैं।
b. उप-वर्गीकरण बनाने के बाद, मान लेते है ४ वर्ग बनाये, एक वर्ग में मान लेते है ४ जातीया आती है, ५ साल बाद देखा जाता है की फिर से उन ४ जातियों में एक जाती के लोगों का प्रतिनिधत्व ज्यादा है, फिर क्या ४ वर्ग के ८ वर्ग करेंगे| इसका मतलब साफ़ है की, उप-वर्गीकरण भी पूर्ण रूप से समाधान नहीं दे पा रहा है|
c. सबसे बड़ा नुकसान प्रतिनिधित्व के आंकड़ों पर पड़ेगा। आज भी आरक्षण का बहुत बड़ा बैकलॉग मौजूद है। इसके कई कारण हैं। इन एससी/एसटी/ओबीसी के उम्मीदवार योग्य नहीं पाए जाना, हमने देखा है फर्जी जाति प्रमाण पत्र द्वारा नौकरिया पाना। जाली इनकम सर्टिफिकेट बनाना| इससे ज्यादा हर राज्यों में जाति प्रमाण पत्र जारी/स्वीकार करने के अलग अलग नियम हैं, एक सर्टिफिकेट दूसरे राज्यों में नहीं चलता।
अब जब बैकलॉग मौजूद है तब क्यों नहीं सबसे निचले पायदान पर खड़े (जिनका सबसे काम प्रतिनिधित्व है) जाती के लोगों को प्रतिनिधित्व दे देते|
d. मुझे लगता है कि इस मामले को चलाने वाले लोगों की नीयत साफ नहीं है। क्या उनके पास इस बात का जवाब है कि प्रमोशन में आरक्षण क्यों नहीं है? क्या प्रमोशन पाना और उच्च पद पर प्रतिनिधित्व देना जरूरी नहीं है?
e. आज जब उप-वर्गीकरण नहीं है तो इतने झगड़े हो रहे है, जब उप-वर्गीकरण हो जायेगा तब छोटे छोटे वर्ग के लिए भी आपस में झगड़े होंगे| इससे और अधिक विखंडन और विभाजन हो स्वाभाविक सा लगता है|
f. सिस्टम बहुत जटिल हो जाएगा और हमेशा प्रशासनिक मुद्दों की संभावना रहेगी।
5. क्रीमी लेयर
मेरे अनुसार, क्रीमी लेयर पूरी तरह से असंवैधानिक है क्योंकि आज की क्रीमी लेयर पूरी तरह से आर्थिक आधारित है और आरक्षण कभी भी आर्थिक आधारित नहीं है| अगर वेतन 8 लाख है तो यह क्रीमी लेयर है, वाह, चाहे वह ओबीसी हो या एससी / एसटी, क्रीमी लेयर का मापदंड केवल व्यक्तिगत का अर्थशास्त्र नहीं होना चाहिए, बल्कि उससे पहले हमें उस जाति की सामाजिक स्थिति को देखना चाहिए। उस जाति के कितने % लोग फर्स्ट क्लास अफसर बने है, कितने HOD बने है, कितने प्रिंसिपल है, कम से कम आरक्षण के अनुपात से उपस्तिथि होने चाहिए|
जटिलता, नीट के पेपर लीक होना, नकली सर्टिफिकेट बना कर आईएएस तक बन जाते है जिससे कार्यान्वयन में कठिनाई, आर्थिक स्थिति का जाली सर्टिफिकेट बन जाना और सटीक आकलन ऐसे कई हेरफेर की संभावना, आर्थिक स्थितियों का नियमित अपडेट व समीक्षा की आवश्यकता|
6. समाधान
मैंने कहा था उप-वर्गीकरण कभी भी असमानता के मूल कारणों को संबोधित नहीं कर पायेगा और इसीलिए मैं इसे सस्ता समाधान कहा है| असमानता के मूल कारणों को उजागर किया जाना बहुत जरुरी है| सबसे पहले हमे निचे से ऊपर उठाने की जरुरत है, हमें जाति आधारित जनगणना करनी चाहिए, जिससे समाज का स्वरुप पूर्णरुप से सामने आ जाये| कुछ समाधान मेरे सामने आते है जैसे की:
- अतिव्यापी कमज़ोरियों को संबोधित किया जा सके।
- आर्थिक मानदंड: आर्थिक मानदंड प्रतिनिधित्व के लिए नहीं बल्कि उसके बहार लागू करें। राजनैतिकों द्वारा आरक्षण का उपयोग वोट बैंक की तरह किया गया है आज तक|
- लक्षित कार्यक्रम: शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा या रोज़गार जैसी विशिष्ट ज़रूरतों को संबोधित कर टार्गेटेड विशेष कार्यक्रमों को लागू करें।
- समावेशी नीतियाँ: सुनिश्चित करें कि नीतियाँ अंतर्विषयक पहचान और अनुभवों को संबोधित करें, ताकि आगे हाशिए पर जाने से बचा जा सके। उप-वर्गीकरण और क्रीमी लेयर यह सुनिश्चित नहीं करते|
- नियमित समीक्षा और संशोधन: उभरती ज़रूरतों और कमियों को संबोधित करने के लिए नीतियों का समय-समय पर मूल्यांकन और समायोजन करें।
- सामुदायिक जुड़ाव: नीतियों को उनकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में हाशिए पर पड़े समुदायों को शामिल करें। इसीलिए पदोन्नति के आरक्षण बहुत जरुरी है|
- प्रणालीगत बाधाओं को संबोधित करना: हाशिए पर पड़े समूहों को लाभ प्राप्त करने से रोकने वाली प्रणालीगत बाधाओं की पहचान करें और उनका समाधान करें।
- सहयोगात्मक प्रयास: संसाधनों और विशेषज्ञता का लाभ उठाने के लिए सरकार जैसे गैर सरकारी संगठनों के साथ काम करती है, वैसे ही सामुदायिक संगठनों के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करें। इससे टार्गेटेड कोलैबोरेशन होने की सम्भावनाये है|
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