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Showing posts from February, 2023

आंबेडकर और अम्बेडकरवाद

भारत के लोगों को यह समझना होगा कि अंबेडकरवाद सिर्फ एक नाम नहीं है। अम्बेडकरवाद एक धारा है। आज भी मुख्यधारा के पत्रकार और बुद्धिजीवी अम्बेडकरवाद को एक नाम अम्बेडकर मानते हैं और अम्बेडकर को मानने वालों को एक नेता (विशिष्ट दलित नेता) का अनुयायी माना जाता है।    मुख्य रूप से राजनीति में हमने 3 भागों पर विचार किया है, एक दक्षिणपंथी (अनुयायी को भाजपा माना जाता है), वामपंथी (अनुयायी को भाकपा, सीपीएम माना जाता है) और कांग्रेस मध्यमार्गी। लेकिन मेरे हिसाब से एक और तबका है जिसे अम्बेडकरवादी भी कहा जाता है जो मध्यमार्गी से ऊपर है। मैं मिडसेंटरी से ऊपर क्यों कह रहा हूं क्योंकि यह ट्रेंडी है और मिडसेंटरी के सभी मानदंडों को पूरा करता है। इसके अलावा अम्बेडकरवाद ने बहुत स्पष्ट दिशा-निर्देश लिखे हैं। अम्बेडकर द्वारा लिखित संविधान को आसानी से डिकोड किया जा सकता है। लोगों को समझाना होगा फरक आंबेडकर का अम्बेडकरवाद से| बीजेपी, कांग्रेस, आप और मेरे ख्याल से स.पा और आर. एल. दी जैसी पार्टिया भी आंबेडकर एक नाम को अपना सकती है पर अम्बेडकरवाद को नहीं| आंबेडकरवाद से बानी पार्टियो में राष्ट्रीय लेवल पर बी...

बी.एस.पी और शिरोमणि अकाली दाल गठबंधन मेरी नज़र से

बहुजन समाज पार्टी ( बी.एस.पी) और शिरोमणि अकाली दाल (एस.ए.डी) गठबंधन आज की ही न्यूज़ है| पहली बार दोनों साथ नहीं आये है बल्कि कांशीरामजी के समय भी दोनों पार्टिया साथ आयी थी| १९१५ में बी.एस.पी ने एस.ए.डी को सपोर्ट किया था, १९९६ के लोकसभा चुनाव भी साथ में लड़े थे जिसमे कांशीराम जी होशियारपुर से जीते थे| इसके कुछ ही महीनो बाद एस.ए.डी ने बी.एस.पी से नाता तोड़ बीजेपी से नाता जोड़ लिया| १९९७ में एस.ए.डी ने बीजेपी के साथ मिल कर सरकार भी बनायीं| करीब २५ साल बाद फिर दोनों पार्टिया साथ में आयी| जून-२०२२ में दोनों ने मिल कर विधानसभा का चुनाव लड़ा| आज मायावती जी घोषणा करती हैं कि यह गठबंधन २०२४  लोकसभा भी साथ में चुनाव लड़ेगा| देखने वाली बात है की इस बार मायावती जी खुद सुखबीर सिंह बदल जी के घर गयी थीl जून-२०२३ में सतीश चंद्र मिश्रा जी दिखाई दिए थे| क्या मायावती जी ने इस बार खुद २०२४ की कमान संभाली है?  अगर इतिहास के कुछ पन्ने पलटाये तो इस गठबंध के पास बहुत कुछ कर दिखने का बशर्ते यह गठबंधन सिर्फ चिनावी घोषणा बन कर न रह जाये| पंजाब में दलित करीब ३१% और पिछड़े भी करीब ३१% माने जाते है जोकि काफी...

बहुजन राजनीती में सेंघमारी का दौर

क्या बहुजनों की राजनीतिक कभी ऐसे रूप में उभर पाएगी कि उनके बिना न कोई कदम, न कोई फैसला और न कोई कानून भारत देश में कोई सोच भी पाए| मुझे लगता है की मुस्लिमों और बहुजनों की हालत एक जैसे ही है| आज के तारीख में किसी भी राज्य में हम नहीं कह सकते की इन दोनों समुदायों की जवाब देहि, साझीदारी है| मुस्लिमों की बात करें तो आज़ादी के बाद से कोई भी संगठन बजबूती से नहीं रहा इनके पास, वही बहुजनों की बात रखने के लिए बाबा साहेब जैसे नेता थे और बाद में भी कई नेता आये| आज कल की बातें करें तो AIMIM दिखती है मुस्लिमों की बात रखती हुयी और बहुजनों की क्या बात हर राज्य में दो या तीन पार्टियां तो मिल ही जाएगी जो दम भारती है बहुजनों की बात रखने की| गिनी चुनी ही पार्टिया है जो राष्ट्रीय स्तर पर बात रख पाती है|  क्योकि किसी भी बहुजन पार्टी का अब वोट पर पकड़ नहीं रही तो सेंघमारी तो करनी पड़ेगी| चाहे बसप हो या कोई और बहुजन पार्टी इनके पास कोई भी अपना मुद्दा नहीं बचा है या कोई अपना मुद्दा उठाना नहीं चाहते| अब सेंघमारी की बात करे तो बसप का यह हाल हो गया की मायावती जी को अपने जन्मदिन पर EVM पर बयांन देना पड़ा और EVM छ...